April 24, 2025

सुधीर भाई तो डॉक्टर बनना चाहते थे । 1976 में आचार्य विनोबा भावे से मुलाकात ने वह सब बदल दिया। जिसमें आचार्य विनोबा भावे ने उन्हें बताया कि भारत की आत्मा गांवों में है और वास्तव में मानवता की सच्ची सेवा गांवों में सेवाकरने में है।

पिछले 47 वर्षों से तमाम विरोधों और कठिनाइयों के बावजूद, वह देश भर से और सभी आयु समूहों के परित्यक्त,असहाय, विकलांग, मरने वाले और बेसहारा लोगों के उत्थान के लिए अथक प्रयास कर रहे हैं। अपने इकलौते बेटे की दुखद और असामयिक मृत्यु, उसकी इकलौती बहन की उसके पति द्वारा हत्या और उसके पिता की मृत्यु ने उसकेसंकल्प को हिला नहीं दिया और मानवीय सेवाओं के उसके मार्ग को बदल दिया।

चिकित्सक बनने का सपना छोड़ा

1976 में पवनार में आचार्य विनोबा भावे से प्राप्त मार्गदर्शन के बाद चिकित्सक बनने का सपना छोड़ा, अनेक सामाजिक संस्थाओं के माध्यम से दूरस्थ आदिवासी-ग्रामीण-श्रमिक झुग्गी झोपड़ी और गंदी बस्तियों में निराश्रित-मरणासन्न, निःशक्त वृद्धों, मनोरोगियों निःसहाय, असहाय, पीड़ित, शोषित वर्ग की सेवा, शिक्षा, स्वास्थ्य, स्वावलम्बन और सद्भाव से संबंधित पंच सूत्रीय प्रकल्पों के माध्यम से अपने सामाजिक कार्य को गति देते हुए विज्ञान स्नातक सुधीर भाई ने 1986 में प्रदेश के प्रथम उज्जयिनी वरिष्ठ नागरिक संगठन की स्थापना की और कुष्ठधाम हामूखेड़ी में नारकीय जीवन जी रहे महारोगियों की पीड़ा को समझा ।मरणासन्न लकवा पीड़ित कुष्ठरोगी नारायण को अपने ऑफिस गैरेज में लाकर अंतिम सांस तक उसके घावों की मरहम पट्टी के साथ सेवा की ।

कुष्ठधाम की स्थापना कर उन्हें शिक्षा और स्वावलम्बन के साथ जीवनोपयोगी सुविधाएं उपलब्ध कराने हेतु लम्बा संघर्ष किया, परिणाम स्वरूप आज अनेक महारोगी आत्म स्वाभीमान के साथ स्वावलम्बी जीवन व्यतीत कर रहे है। कुष्ठधाम में बच्चों और महिलाओं की शिक्षा केन्द्रों के विविध प्रशिक्षणों की व्यवस्था की।

मैं फूला नही समाया

मैं पीएमटी में रह गया था बाबूजी के मित्र श्री रणछोड़ दास जी मित्तल के कहने पर उनका बेटा वर्धा मेडिकल काॅलेज में पढ़ता था वर्धा गया। मेरे ताउजी के एक और रिश्तेदार के माध्यम से डाॅ. सुशीला नय्यरजी से परिचय हुआ। डाॅ. नय्यर गांधीजी की सहयोगी थी वे मेरे सेवाकार्यों से काफी प्रभावित हुई और पारिवारिक पृष्ठभूमि की जानकारी प्राप्त कर उन्होंने अपने अधीन कोटे से प्रवेश हेतु स्वीकृति दी। मैं फूला नही समाया मुझे खूब अच्छा लग रहा था। गांधी मेडिकल काॅलेज में प्रवेश मिलना वह भी अध्यक्षीय कोटे से आसान नही था। कुछ राशि जमा करनी थी।

 उज्जैन से राशि आने वाली थी इस बीच पवनार चला गया, बचपन से ही जब से विनोबाजी के बारे में मेरे फूफाजी श्री रत्नाकर भारतीयजी (ठठब् लंदन) के पिताजी स्वतंत्रता सेनानी और विनोबाजी के साथी बाबू मूलचंदजी अग्रवाल (विसर्जन आश्रम, इन्दौर) से विनोबाजी के बारे में सूना था, उनके दर्शन की मन में तीव्र इच्छा थी। मालूम पड़ा पवनार पास ही है, बस फिर क्या था पवनार पहुंच गया, वहाँ बाबा को कुटिया के बाहर धूप में बैठे देखा, सुबह का समय था। 

आचार्य विनोबा के प्रथम दर्शन

आसपास कुछ बहने बैठी थी कुछ लिख रही थी, बाबा पुस्तक पढ़ रहे थे, बाबा के सिर पर उनकी पहचान उनकी टोपी थी, दाढ़ी के बाल सफेद और हल्के काले थे। चश्मा लगाए थे, धूप में काला हो गया था, आंखों को देख नही पाया ये थे बाबा के प्रथम दर्शन, वे मौन में थे पास में स्लेट पट्टी रखी हुई थी। 

मैंने झुककर बाबा को प्रणाम किया उन्होंने संकेत से पूछा कहाँ रहते हो, मैंने बताया उज्जैन। यहा क्यों आए ,कारण बताया। बाबा ने सबकुछ सुनकर लिख कर बताया ‘ गांवों में भारत की आत्मा बसती है, तुम तो गांव के लिए काम कर रहे हो और तुम्हारे लक्ष्य में सेवा, शिक्षा के साथ स्वास्थ्य जुड़ा है, चिकित्सक बनने की जगह अपने काम को ही आगे बढ़ाओ।

मैंने चिकित्सक बनने का सपना छोड़ दिया, अचानक मेरा यह निर्णय 1976 में किसी के गले नही उतरा। परिवार सहमत नही था। मेरा भी सपना चिकित्सक बनकर बीमारों की अभवग्रस्तों की दिव्यांगों की सेवा करने का था किन्तु न जाने बाबा विनोबा ने क्या जादू कर दिया जो मैंने अपना सपना ही छोड़ दिया। खैर मैंने अपने काम को जारी रखा और मित्र मनोहर और अन्य चिकित्सकों के कार्य से भी बड़ा कार्य परमात्मा सद्गुरू देव के आर्शीवाद और उनकी दिव्य दृष्टि का ही परिणाम समझता हूं। उन्होंने पहली मुलाकात में ही मेरे जीवन की धारा बदल दी।

आज मेरे कई सहपाठी चिकित्सक मित्र विविध क्षैत्रों में सेवा कर रहे है उनें डाॅ भोरास्कर और डाॅ. सुरेश शर्मा उज्जैन में प्रमुख है। सुशील दवे (गुड्डु) से आज तक मित्रता कायम है, वह मेरा पारिवारिक सदस्य और कल्याण मित्र के भांती है, उसकी सलाह महत्वपूर्ण होती है। 40 वर्षों से साथ में जुड़ा हुआ है। 

मैंने अपने मन में वरिष्ठ नागरिकों के लिए एक मंच स्थापित करने के लक्ष्य के साथ उन्होंने 1986 में उज्जैनी वरिष्ठ
नागरिक मंच की स्थापना की, जो मध्य प्रदेश राज्य में अपनी तरह का पहला मंच था।
उन्होंने अत्यंत दयनीय परिस्थितियों और अस्वच्छ वातावरण में रहने वाले कुष्ठ रोगियों को देखा। नारायण, एक लकवाग्रस्त कुष्ठ रोगी, जिसे बेडसोर था सुधीर भाई ने मरने तक अपने गैरेज में सेवा की थी । कुष्ठ रोग से प्रभावित लोगों के उत्थान और कल्याण के उनके आग्रह ने उन्हें हमुखेड़ी उज्जैन में कुष्ठ कल्याण केंद्र बनाने के लिए प्रेरित किया।

बच्चों के प्रति सुधीर भाई के प्रेम और स्नेह का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि 1979 में पंचमढ़ी (एमपी) में
बच्चों को बचाने के दौरान उन्होंने अपनी बाईं आंख खो दी थी।

उन्होंने 1989 में सेवाधाम आश्रम की स्थापना की ताकि मरने वाले और बेसहारा लोगों को अपार प्रेम, देखभाल और
करुणा के साथ जीवन भर आश्रय दिया जा सके। उन्होंने सेवा, शिक्षा, स्वास्थ्य, स्वावलंबन, सद्भाव और पर्यावरण
संरक्षण के पांच सूत्री सिद्धांत का पालन करते हुए जरूरतमंद लोगों को भोजन, आश्रय, शिक्षा और पुनर्वास प्रदान
करने के अपने प्रयासों में कोई कसर नहीं छोड़ी।

सेवाधाम आश्रम ने लगभग पिछले तीन दशकों में अपनी सेवाओं के मजबूत पदचिह्न छोड़े हैं और 1989 में एक
निवासी की सेवा की विनम्र शुरुआत के साथ काफी तादाद बढ़ी है और आज सेवाधाम 700 से अधिक निवासियों की सेवा कर रहा है, जिसका उद्देश्य बेघर, असहाय, और कभी जीवन खो देने वाले निराश्रित लोगों की सेवा करना है।