April 24, 2025

मेरी माँ मेरी सबसे बड़ी प्रेरणा थी, मैं आज जो भी कुछ हूं माँ-बाबूजी के कारण ही हूं। मेरे ‘बाबूजी‘ से मिली प्रेरणा आज काम आ रही है, सबकी मदद परोपकार यह उनसे ही तो सीखा, यह दावे के साथ कह सकता हूं, बचपन की बाते जीवन में कभी भूली नही जाती, वे हमेशा याद रहती है। उनका अपना वजूद होता है, उसी से जीवन बनता और बिगड़ता है, उनको क्रोध भी खूब था किसी भी गलत बात पर भी समझौता नही करते इसलिए तो उन्होंने बाल्यकाल में अपना घर छोड़ दिया था, शिक्षक होते हुए सरकारी नौकरी छोड़ी आत्म स्वाभिमान और अपनी स्वयं की सोच के अनुसार निर्णय लेने वाले रहे

सेवा की प्रेरणा बचपन से मिली। जब सुधीर भाई अपने नानाजी के घर मोरसली गली, इन्दौर की लाल हवेली में अपने मामा हनुमानजी की दुर्दशा और उनकी ह्रदय विदारक पीड़ा को देखता , बाल मन दुखी होता था। मामाजी मानसिक विक्षिप्त थे, छोटी छोटी बात पर झल्ला जाते थे, कुए से पानी भरने का काम उनका था लेकिन जब थक जाते बाल्टी उठाकर फोड़ देते थे, उन्हें कुए के पास वाले कमरे में बंद करके रखा जाता था, जब सड़क पर जाते बच्चे, बड़े उनकी धोती पीछे से खोलकर उन्हें चिढ़ाते, पागल पागल कहते यह देखकर मैं उन्हें भागता, मामाजी हाथ में जो भी आता उससे उनको मारने दौड़ते, उनकी इस पीड़ा का दृश्य आज भी सुधीर भाई के मन मस्तिष्क में जीवन्त है वे कहते हैं कि यदि मैं चित्रकार होता तो हूबहू चित्र कागज पर उतार देता, लोग उन्हें भगतजी भी कहते। मामाजी के लिए क्या करूं, उस समय इलाज की भी कोई व्यवस्था नही थी जब मैंने होश सम्हाला 6-7 वर्ष का था वे मुझे खूब प्यार करते थे, मेरी उनसे खूब पटती थी, मेरा जन्म नानाजी के यहाँ ही हुआ, गोदी में खिलाते सुधीर सुधीर कहकर मेरी उंगली पकड़कर घर में ही इधर उधर घूमाते, छत पर ले जाते, अपने हाथ से कई बार खाना खिलाते, कभी कभी उनकी करूणा देखकर उनसे लिपट जाता। 

जन्म श्रीकृष्ण जन्माष्टमी 19 अगस्त 1957

सुधीर भाई बताते हैं , मेरा जन्म श्रीकृष्ण जन्माष्टमी 19 अगस्त 1957 में शकुंतलादेवी हाॅस्पिटल, इन्दौर में माँ सत्यवती देवी की कोख से हुआ। प्रारम्भिक लालन-पालन गोपालदासजी मथुरावाले और नानाजी पानाबाई के निर्देशन में मोरसली गली स्थित लाल हवेली में हुआ। नानाजी और नानीजी आजीवन खादी व्रती रहे, उन्होंने स्वातंत्र आंदोलन में ऐसे परिवारों की हमेशा मदद की जो जेल में होते थे या फरारी काट रहे थे, नानाजी की टोपियों की बहुत बड़ी दुकान न्यू मालवा ट्रेडिंग कम्पनी के नाम से राजवाड़ा पर थी जो आज भी है। नानाजी के साथ होश सम्हालते ही दुकान पर जाता था, टोपिया जमाता था और तल घर में जाकर छिप जाता था, सो जाता था। बचपन से ही खूब शैतान रहा, आसपड़ौस के घरों में जाना, उनका स्नेह पाना, शैतानी करना यह मेरा स्वभाव था। 

मेरे जन्म के बाद पिताजी ने फ्रीगंज में सुधीर टेडर्स के नाम से स्टेशनरी और किताबो की दुकान प्रारम्भ की। मेरे जन्म के समय पिताजी का अपने परिवार से सम्बंध नही था और वे नरेन्द्र टाकिज के सामने हंसाबेन शांतिभाई पटेल के मकान में किराये से रहते थे। हमारे आसपास रहने वाले गुजराती परिवारों के बीच खेला-कूदा डायाभाई, भानूभाई पटेल, वेलजी भाई शाह गिरधारीलालजी बागड़िया, सुशीलाबेन रामजीभाई, आदि के घर में मुझे खूब प्यार मिला, हंसाबेन के परिवार में अधिकांश दही, चावल एवं गुजराती व्यंजन खिलाया जाता था, मैं खूब उधमी भी था।

नानाजी मुझे 10 पैसे रोज देते थे

बचपन में नानाजी मुझे 10 पैसे रोज देते थे, पूनमचंद हलवाई की दुकान लाल हवेली के सामने थी, वहां जाकर दूध और जलेबी खाता था। मोरसली मंदिर स्थानक और जैन मंदिर में बाल्यकाल से ही जाया करता था, जैन साधु संतो को अक्सर देखा करता था, नानाजी की हवेली के पास में जैन स्कूल था, उसकी छत पर खूब पतंग उडाई और चील को मीठे पकोड़े खिलाए। जीव दया के संस्कार भी नानाजी से मिले। गायों को रोटी एवं चारा डालना नित्य की आदत थी।

 

वात्सल्य की प्रतिमूर्ति मेरी माँ मेरी प्रेरणा

मेरी माँ खूब दयालु थी, सह्रदय थी, आज भी उनका स्मरण करते ही आंखे भर जाती है। माँ ने खूब कष्ट उठाये, माँ जब विवाह के बाद उज्जैन आई तब मेरे ताउजी के परिवार और रिश्तेदारों से मेरे पिताजी के सम्बंध नही थे, केवल नईसड़क स्थित तांगा स्टेण्ड पर घीसालालजी बारदान वाले का ही परिवार था जहां विवाह के बाद माँ आई, कुछ दिन रहने के बाद किराये के मकान में माँ और पिताजी चले गए। माँ कुछ ही दूर स्थित ताउजी के मकान में पिताजी को बिना बताए जाने लगी। उन्होंने मेरी दादी, ताईजी और मेरी बड़ी दादी जो रिजपालजी के नोरे के पास ही रहती थी से सम्बंध बनाए। पिताजी को मालूम पड़ने पर वह खूब नाराज होते थे। माँ के साथ मैं भी अक्सर जाता था। पिताजी को यह बिल्कुल भी पंसद नही था कि उन सबसे सम्बंध रखे लेकिन माँ तो माँ थी उसे सबसे सम्बंध रखने के साथ आने वाले समय में हम सब का पालन पौषण एवं परिवार के साथ सम्बंधों की जिम्मेदारी का अहसास था मेरे बाद छोटे भाई समीर (छोटू) का जन्म हुआ बाद में सचिन (बाबू) और अमीता (मुन्नी) का जन्म हुआ। हम 4 भाई बहनों को सम्हालना, घर का काम करना, भोजन बनाना, माँ को ही करना पड़ता था, हमारे समाज की नैवगण मेरे जन्म के बाद से उनकी मृत्यु पर्यन्त मेरे परिवार में आती थी जिनका सहारा माँ को मिलता था। हंसाबेन पटेल के मकान के बाद हम ढाबा रोड़ पर लादूराम मावा वाले दुकान के पास मकान में रहते थे, उसके बाद महाकाल रोड़, 24 खम्बा माता के पास मकान में रहने लगे, फिर ढाबा पर ताज मोहम्मद के मकान में गए, किराये के मकान में घूमते घूमते परेशान हो गए, पिताजी को सम्पत्ति से मोह नही था लेकिन माँ ने एक एक पैसा बचाया और कुछ हजार रूपयो में गेबी हनुमान मंदिर गली में अभिभाषक श्यामलाल गौड़ साहेब के मकान के सामने एक मकान जिसकी छत जूपिये की थी खरीदा, खरीदने के लिए पिताजी पर दबाव बनाया और वह मकान खरीदा, पिताजी के विवाह के बाद उनका व्यापार, व्यवसाय में काफी वृद्धि हुई। माँ का व्यवहार हमेशा सबके प्रति खूब अच्छा रहा, वे आतिथ्य सत्कार में कभी पीछे नही रही, उनका जीवन संघर्षो भरा रहा, मेरे बेटे अंकित, एकलोती बहन अमिता और पिताजी की मृत्यु के बाद माँ टूट गई। वे वर्षों तक बिस्तर पर पीडा सहती रही। एक छोटे से मकान में हम तीनों भाईयों का परिवार साथ में रहता था लेकिन हम सब में खूब एकता रही, माँ के साथ श्रीनाथजी के मंदिर और अन्य मंदिरों में उनकी उंगली पकड़कर जाता रहता था। माँ से मिले संस्कार सेवा और धर्म के संस्कार आज मेरे जीवन का आभूषण है। माँ ने खूब लाड़ दूलार दिया जो कभी भूलाया नही जा सकता। माँ के दिये एकता का सूत्र हम तीनों भाईयों की एकता का प्रतीक है।

मेरी माँ मेरी सबसे बड़ी प्रेरणा थी, मैं आज जो भी कुछ हूं माँ-बाबूजी के कारण ही हूं। मेरे ‘बाबूजी‘ से मिली प्रेरणा आज काम आ रही है, सबकी मदद परोपकार यह उनसे ही तो सीखा, यह दावे के साथ कह सकता हूं, बचपन की बाते जीवन में कभी भूली नही जाती, वे हमेशा याद रहती है। उनका अपना वजूद होता है, उसी से जीवन बनता और बिगड़ता है, उनको क्रोध भी खूब था किसी भी गलत बात पर भी समझौता नही करते इसलिए तो उन्होंने बाल्यकाल में अपना घर छोड़ दिया था, शिक्षक होते हुए सरकारी नौकरी छोड़ी आत्म स्वाभिमान और अपनी स्वयं की सोच के अनुसार निर्णय लेने वाले रहे। आज भी कई ऐसे अपरिचित मिलते है जो बाबूजी के बारे में बताते है कहते है हम आपकी दुकान से काॅपी किताबे लेकर पढ़े कभी हमारे पास पैसे नही होते तो भी गोयल साब मना नही करते उनका पूरे बाजार में उज्जैन में बड़ा सम्मान था, वे सबके लिए मददगार थे, बाबूजी भी माँ के समान ही सबसे बड़े प्रेरणा पुंज थे उनसे जो सीखा वह जीवन की कमी न मिटने वाली प्रेरणाऐं धरोहर बन गयी। 

पिता का अनुशासन 

बाबूजी का मेरे जीवन पर गहरा प्रभाव पड़ा। मैं भी सदा अपने मन की ही करता हूं जो अच्छा लगता वही निर्णय लेता हूं। मुझे भी गलत बातों पर खूब क्रोध आता है अब तो काफी हद तक कम हो गया, मेेरे पास आने के बाद कोई भूखा नही जाता। सबके साथ आत्मीय सम्बंध, सबको इज्जत देना, सबकी मदद करना, आदत बन गयी, इस चक्कर में कई बार बाबूजी के समान ही मुझे भी धोका मिला, बाबूजी ने कभी किसी की भी चाटूकारिता नही की, वे सदा अपना सम्मान बनाए रखते, यही आदत मेरी भी बनी, यही संस्कार बने अन्यथा आज बड़े से बड़े सम्मान, पद, प्रतिष्ठा, सम्पत्ति का मालिक बन जाता लेकिन मुझे लगता मेरे पास दुनिया की सबसे ज्यादा कमाई है जो परोपकर से कमाई हुई है और बिना ताले की तिजोरी में रखी हुई है। 

जैसे-जैसे बड़ा होता गया, माँ बाबूजी को देखा, माँ घर आने वाले सबका आतिथ्य करती, उनकी सहायता करती, अनेक आर्थिक कष्ट उठाती उसके पास ज्यादा पैसे नही होते थे फिर भी घर में काम करने वली नेवगणजी, खाना बनाने वाली माँ सा गली में झाडू लगाने वाली मेहतरानी, बुआजी (जो वार त्यौहार गीत गाने आती थी) आस पड़ौसी आदि की उनकी जरूरत पर मदद करती, बिना ब्याज उधार देती सभी माँ की खूब इज्जत करते वे खूब संवेदनशील थी किसी का दुख उनमें देखा नही जाता। उनसे कई बार झगड़ा भी हो जाता उनकी करूणा संवेदना दया, वात्सल्य, प्रेम और आत्मीय भाव का असर मेरे जीवन पर पड़ता गया। उनके बारे में लिखते लिखते आंखे भर आती है, उनसे कई बार झगड़ा भी हो जाता मैं रूठ जाता वे रोती हुई मनाती, उनसे जो भी सीखा वह आज काम आ रहा है, वे हिम्मतशाली, सहनशीला, सबके साथ सम्बंध बनाने वाली, मुसीबतों से संघर्ष करने वाली, किसी भी स्थिति में निराश न होने वाली बहादुर महिला थी। 

माँ खूब मदद करती

मैं उनका अपराधी हूं ये सब याद करते बताते हुए आंखों में आंसू बह रहे है शायद यही मेरा पश्चाताप है फिर भी माँ खूब मदद करती, मुझे हमेशा मेरे सेवा कार्यों में पैसे की जरूरत होती वे अपनी बचत में से पिताजी को बताए बिना देती रहती, उन्हें विश्वास था सुधीर गलत कामों में खर्च नही करता।

व्यापार में मन नही लगने से कमाए पैसे से दूसरों की मदद करने से परेशान भी रहती, मेरे पास का पैसा कभी बचाकर नही रखता। उन्हें हमेशा यह डर सताता मेरे परिवार का क्या होगा, कैसे चलेगा, माँ ने डाॅ. वेद प्रताप वैदिक जी को भी इस बारे में कई बार कहा वे अपने विचार व्यक्त करते, माँ के बारे में पूरी बात बताते जो माँ उनसे करती, जब डाॅ. श्रीराम दवेजी से चर्चा हो रही थी वे भी बता रहे थे उन्होंने भी माँ को नजदिकी से देखा, जब वे हमारे घर के सामने ही वरिष्ठ अभिभाषक सुभाषजी गौड़ के यहां आते थे, माँ को देखते थे, मिलते थे। माँ की बांते उनकी प्रेरणा उनका ऋण कभी नही चुका सकता। वे सच्ची राष्ट्र सेविका थी। 

किसी भी बड़ी विपत्ति में कभी भी घबराती नही थी, माँ का आस पड़ौसियों के साथ खूब अच्छ सम्बंध था वे हमेशा एक दूसरे की मदद करती थी, किसी के यहाँ मेहमान आ गए, दाल, आटा, शकर चायपत्ती, दूध, पैसे आदि कोई भी पड़ौसी मांगने आता तो मना नही करती, माँ तो माँ थी, भूखे रहकर, कष्ट सहकर पिताजी की डाॅट सुनकर भी हमेशा हमारा पक्ष लिया, हमें पाल पोसा माँ का प्यार मेरे साथ मेरे छोटे भाई समीर (छोटू) सचिन (बाबू) और बहन अमिता (मुन्नी) के प्रति भी वही रहा, वे सबसे समान प्यार करती थी लेकिन मुझसे थोड़ा ज्यादा था, माँ मेरी सबसे बड़ी प्रेरणा पुंज बनी मरे परोपकारी जीवन में उसका खूब प्रभाव पड़ा। 

माँ रोती तो मैं भी रोता

कभी कभी माँ के साथ किन्ही कारणों से झगड़ा इस कदर बढ़ जाता था कि माँ के सम्मान को ठेंस पहुंचती , वे रोती तो मैं भी रोता, उन परिस्थिति में कभी अपने आपको माफ नही कर पाउंगा। 

माँ के बाद बाबूजी को भी लोगों की सहायता करते देखा, जब होश सम्हाला, उनके साथ कमरी मार्ग और ढाबा रोड़ स्थित दुकान पर जाता था हमारी किताब कापी स्टेशनरी की दुकान थी, बाबूजी के पास जो भी आता कभी बिना चााय पिए नही जाता, भूखा नही जाता। कई परिवार आते बच्चो की कापी किताबे लेने उनके पास पैसे नही होते कहते गोयल साब बाद में पैसे दे दुंगा, अभी तो ये ही है, बाबूजी ग्राहक जो देता रख लेते कई बार तो गरीब बच्चे आते और कहते बाबूजी हमारे पास पैसे नही है, घर वाले किताब काॅपी नही लाते, आप हमें किताब दे दो, पट्टी पेन दे दो, काॅपी दे दो बाबूजी उन्हें कभी निराश नही करते, उसय समय छोटा सा काम था लेकिन दूसरो की मदद करने में कभी पीछे नही रहते।

बिना किसी स्वार्थ के जरूरतमंदों की मदद करने की प्रेरणा माँ के साथ बाबूजी से भी मिली, वे उपर से सख्त थे किन्तु अंदर से मुलायम यही गुण मुझे भी मिले, मैं कितना ही किसी पर नाराज हो जाउ, क्रोध करू, कोई कितना ही नुकसान कर दे, धोका दे दे, अपराध कर दे, गुस्सा थोड़े समय का होता है बाद में मैं उसके व्यवहार को गांठ बांधकर कभी नही रखता। 

मेरे पूज्यनीय माता-पिता के साथ मेरे नाना-नानी भी मेरे प्रेरणा स्त्रोत रहे। उन्हें भी हमेशा दूसरो की मदद करते देखा उसे भी कभी नही भूल सकता, मेरा जन्म ही नानाजी की हवेली में हुआ। नानाजी नानीजी के जीवन की सादगी के दर्शन आज मेरे जीवन का दर्शन बन गया वे आजीवन खादी धारी थे और मुझे भी खादी वस्त्र पहनते हुए लगभग 30 वर्ष तो हो ही गए। खादी वस्त्र सद्कार्य पर ले जाते है और जीवन के विचार बदलते है, यह मैंने अनुभव किया। मेरे गोलामण्डी के समीप रहने वाले मित्र के दिव्यांग भाई की परिवार में नारकीय स्थिति देखकर ऐसे दिव्यांगों के लिए कुछ करने का विचार आया। इसी प्रकार भिक्षावृत्ति करते हुए एक वृद्ध स्वतंत्रता संग्राम सेनानी को देखा-सम्मान किया, आजीवन उनकी सहायता का संकल्प लेकर वृद्धजनों की सेवा प्रेरणा बनी, इसी प्रकार उनेक भूख से तड़पते-कुपोषण  के शिकार सड़क पर पड़े, घूमते, बीमारों, विक्षिप्तों जिनमें बच्चे युवा और महिला वृद्ध थे को देखा उनके प्रति अंदर से करूणा, वात्सल्य भाव उत्पन्न हुुए और फिर तो जो आज हूं उसी प्रेरणा का प्रतिफल है।